पाटल-माल

पीछे

पुण्य की है जिसको पहचान,
उसे ही पापों का अनुमान,
सदाचारों से जो अनभिज्ञ,
दुराचारों से वह अज्ञान,
                       उसी के लज्जा से नत नेत्र,
                       जिसे गौरव का प्रतिपल ध्यान,
                       जगत के जीवन से अब, हाय,
                       गया उठ भोलेपन का मान,
लगा मत उस भोली को दोष,
न उस पर आँखें लाल निकाल,
स्वयं निज सौरभ से अनजान
रही खिल वन में पाटल माल।

नयन में पा आँसू की बूँद,
अधर के ऊपर पा मुस्कान,
कहीं मत इसको, हे संसार!
दुखों का अभिनय लेना मान।
                        नयन से नीरव जल की धार
                        ज्वलित उर का प्रायः उपहार,
                        हँसी से ही होता है व्यक्त
                        कभी पीड़ित उर का उद्गार।
तप्त आँसू से झुलसे गाल
किए कोई मदिरा से लाल,
इसी का तो करती संकेत
रही खिल वन में पाटल माल।
 

पुस्तक | मधुबाला कवि | हरिवंशराय बच्चन भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीत छंद |