फागुन महीना की कही ना परै बातै

पीछे

फागुन महीना की कही ना परै बातै दिन-
      रातैं जैसे बीतत सुने तें डफ-घोर कों।
कोऊ उठे तान गाय प्रान बान पैठि जाय
      हाय चित-बीच पै न पाऊँ चितचोर कों।
मची है चुहल चहूँ दिसि चोप चाचरि सों,
     कासों कहौं सहौं हौ बियोग-झमझोर कों।
मेरो मन आली वा बिसासो बनमाली बिन
      बावरे लौं दौरि-दौरि परे सब ओर कों।। 

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | घनाक्षरी