चातिक चुहल चहुँ ओर चाहै स्वाति ही को

पीछे

चातिक चुहल चहुँ ओर चाहै स्वाति ही को।
     सूरे पनपूरे जिन्हें विष सम अमी है।
प्रफुलित होत भान के उदोत कंजपुंज
     ता बिन विचारनि हीं जोति-जालतमी है।
चाहौ अनचाहौ जान प्यारे पै अनन्दघन
     प्रीतिरीति विषम सु रोम-रोम रमी है।
मोहिं तुम एक तुम्है मो सम अनैक आहिं
     कहा कछु चन्दहि चकोरन की कमी है।। 

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | घनाक्षरी