बिकच नलिन लखें सकुचि मलिन होति

पीछे

बिकच नलिन लखें सकुचि मलिन होति,
     ऐसी कछु आँखिन अनोखी उरझनि है।
सौरभ समीर आएँ बहकि दहकि जाय
     राग  भर  हिय  मैं  बिराग मुरझनि है।
जहाँ जान प्यारी रूप गुन को न दीप लहै
     तहाँ  मेरे  ज्यौं  परै बिषाद गुरझनि है।
हाय अटपटी दसा निपट चटपटी सों
     क्यौं हूँ  घनआनँद  न सूझै  सुरझनि है।।   

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | घनाक्षरी