जासों प्रीति ताहि निठुराई

पीछे

जासों प्रीति ताहि निठुराई सों निपट नेह,
     कैसे करि जिय की जरनि सो जताइये।
महा निरदई दई कैसें कै जिवाऊँ जीव,
     बेदन की बढ़वारि कहाँ लौ दुराइयै।
दुख को बखान करिबै कौं रसना कै होति,
     ऐपै कहूँ वाको मुख देखन न पाइयै।
रैन दिन चैन को न लेस कहूँ पैये भाग,
     आपने ही ऐसे दोष काहि धौं लगाइयै।। 

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | घनाक्षरी