जान के रूप लुभाय के नैननि

पीछे

जान के रूप लुभाय के नैननि बेंचि करी अधबीच ही लौंडी।
फैलि गई घर बाहिर बात सु नीकें भई इन काज कनौडी।
क्यौं करि थाह लहै घनआनंद चाह नदी तट ही अति औडी।
हाय दई ! न बिसासो सुनै कछु है जग बाजति नेह की डौंडी।। 

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | सवैया