घनआनँद जीवनमूल सुजान

पीछे

घनआनँद जीवनमूल सुजान की कौंधनहूँ न कहूँ दरसै।
सु न जानिये धौं कित छाय रहे दृग चातिग प्रान तपे तरसैं।
बिन पावस तौ इन थ्यावस हो न सु क्यौं करि ये अब सो परसैं।
बदरा बरसै रितु मैं घिरिकै नितही अँखिया उघरी बरसैं।।   

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | सवैया