को ललचाइ न लाल के लखि ललचौंहैं नैन

पीछे

1.    पट सौं पोंछि परी करौ, खरी-भयानक-भेष।
       नागिनि ह्वै लागति दृगनु नागबेलि-रँग-रेख।। 


2.    तो लखि मो मन जो लही, सो गति कही न जाति।
      ठोड़ी-गाड़ गड़्यौ, तऊ उड़्यौ रहै दिन राति।। 


3.    जात सयान अयान ह्वै, वे ठग काहि ठगैं न।
       को ललचाइ न लाल के लखि ललचौंहैं नैन।। 
 

पुस्तक | बिहारी सतसई कवि | बिहारीलाल भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | दोहा