मीत सुजान अनीत करौ जिन

पीछे

मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।
डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेेेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौ घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।।      

पुस्तक | घनानंद कवित्त कवि | घनानंद भाषा | ब्रजभाषा रचनाशैली | मुक्तक छंद | सवैया