सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी

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सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी।
समनि सोक-संताप-पाप-रुज, सकल-सुमंगल-रासी।।
मरजादा चहुँओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी।
तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अबिनासी।।
अंतरऐन ऐन भल, थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी।
गलकंबल बरुना बिभाति जनु, लूम लसति, सरिताऽसी।।
दंडपानि भैरव बिषान, मलरुचि-खलगन-भयदा-सी।
लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी।।
मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर, सुरसरि-सुख सुखमा-सी।
स्वारथ परमारथ परिपूरन, पंचकोसि महिमा-सी।।
बिस्वनाथ पालक कृपालुचित, लालति नित गिरिजा-सी।
सिद्धि, सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी।।
पंचाच्छरी प्रान, मुद माधव, गब्य सुपंचनदा-सी।
ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिस्व बिकासी।।
चारितु चरति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी।
लहत परमपद पय पावन, जेहि चहत प्रपंच-उदासी।।
कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी।
तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै उपासी।। 
 

पुस्तक | विनय पत्रिका कवि | गोस्वामी तुलसीदास भाषा | अवधी रचनाशैली | मुक्तक छंद | पद