मन रे मन ही उलटि समाँना

पीछे

मन रे मन ही उलटि समाँना।
गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना।।
नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा जिनि जैसा करि जाना।
औ लौ ठीका चढ्या बलीडै जिनि पीया तिनि माना।।
उलटे पवन चक्र षट बेधा सुन सुरति लै लागी।
अमर न मरै मरै नहीं जीवै ताहि खोजि बैरागी।।
अनभै कथा कवन सी कहिये है कोई चतुर बिबेकी।
कहै कबीर गुर दिया पलीता सौ झल बिरलै देखी।।    
 

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