दो बूँदें

पीछे

दो बूँदें-

 

शरद का सुन्दर नीलाकाश,
        निशा निखरी, था निर्मल हास,
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
        सुधा सरिता लेती उच्छ्वास।
पुलक कर लगी देखने धरा,
        प्रकृति भी सकी न आँखें मूँद,
सुशीतलकारी शशि आया,
        सुधा की मनो बड़ी सी बूँद।

हरित किसलयमय कोमल वृक्ष,
         झुक रहा जिसका पाकर भार,
उसी पर रे मतवाले मधुप!
         बैठकर करता तू गुंजार।
न आशा कर तू अरे ! अधीर,
         कुसुम रज-रस ले लूँगा गूँद,
फूल है नन्हा सा नादान,
         भरा मकरन्द एक ही बूँद।


 

पुस्तक | झरना कवि | जयशंकर प्रसाद भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद |