वह प्रेम न रह जाये पुनीत
पीछेइड़ा सर्ग-
वह प्रेम न रह जाये पुनीत
अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल रहस्य सकुचे सभीत
सारी संसृति हो विरह भरी , गाते ही बीतें करुण गीत
आकांक्षा जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त
तुम राग विराग करो सबसे अपने को कर शतशः विभक्त
मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध , दोनों में हो सद्भाव नहीं
वह चलने को जब कहे कहीं तब हृदय विकल चल जाय कहीं
रोकर बीतें सब वर्तमान क्षण सुन्दर सपना हो अतीत
पेंगों में झूले हार जीत।