उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर !
पीछेचिंता सर्ग-
उनको देख कौन रोया यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर !
व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय यह प्रालेय हलाहल नीर !
हा-हा-कार हुआ क्रंदन मय कठिन कुलिश होते थे चूर ;
हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार बार होता था क्रूर ।
दिग्दाहों से धूम उठे , या जलधर उठे , क्षितिज तट के !
सघन गगन में भीम प्रकंपन , झंझा के चलते झटके !
अंधकार में मलिन मित्र की धुँधली आभा लीन हुई ,
वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा स्तर-स्तर जमती पीन हुई।
पंचभूत का भैरव मिश्रण , शंपाओं के शकल- निपात ,
उल्का लेकर अमर शक्तियॉ खोज रहीं ज्यों खोया प्रात।
बार बार उस भीषण रव से कँपती धरती देख विशेष ,
मानो नील व्योम उतरा हो आलिंगन के हेतु अशेष ।
उधर गरजतीं सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी ;
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों सी।
धँसती धरा, धधकती ज्वाला, ज्वाला-मुखियों के निश्वास,
और संकुचित क्रमशः उसके अवयव का होता था ह्रास।
सबल तरंगाघातों से उस क्रुद्ध सिंधु के , विचलित सी
व्यस्त महा कच्छप सी धरणी, ऊभ-चूभ थी विकलित सी।
बढ़ने लगा विलास वेग सा वह अति भैरव जल संघात;
तरल तिमिर से प्रलय पवन का होता आलिंगन प्रतिघात।
बेला क्षण क्षण निकट आ रही क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ ;
उदधि डुबा कर अखिल धरा को बस मर्यादा हीन हुआ।
करका क्रंदन करती गिरती और कुचलना था सब का ;
पंचभूत का यह तांडवमय नृत्य हो रहा था कब का ।