शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल !

पीछे

नौका विहार-

 

शान्त, स्निग्ध, ज्योत्सना उज्ज्वल !
अपलक  अनन्त,  नीरव  भू-तल !
सैकत-शय्या  पर  दुग्ध धवल,  तन्वंगी गंगा,  ग्रीष्म विरल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल !
तापस बाला  गंगा निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु करतल,
लहरें उर पर कोमल कुन्तल !
गोरे  अंगों  पर  सिहर-सिहर,  लहराता  तार-तरल  सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलाम्बर !
साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर, शशि की रेशमी विभा से भर,
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर !

 

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर !
सिकता की  सस्मित सीपी पर  मोती की ज्योत्सना  रही विचर,
लो पालें चढ़ीं, उठा लंगर !
मृदु मन्द-मन्द,  मन्थर-मन्थर,  लघु तरणि,  हंसिनी-सी सुन्दर
तिर रही, खोल पालों के पर !
निश्चल जल के  शुचि दर्पण  पर बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे  लगते क्षण भर !
कालाकाँकर  का  राजभवन  सोया  जल  में  निश्चिन्त,  प्रमन,
पलकों पर वैभव-स्वप्न सघन !

 

नौका से उठतीं जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर !
विस्फारित नयनों से निश्चल कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर नभ का अन्तस्तल;
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल
फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल !
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती  परी-सी  जल में कल,
रुपहरे कचों में हो ओझल !
लहरों के घूँघट से झुक-झुक दशमी का शशि निज तिर्यक-मुख
दिखलाता मुग्धा-सा रुक-रुक।

 

अब  पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार !
दो  बाँहों से  दूरस्थ तीर     धारा  का  कृश  कोमल  शरीर
आलिंगन करने को अधीर !
अति दूर,  क्षितिज पर  विटप माल  लगती  भ्रू-रेखा-सी अराल
अपलक-नभ नील-नयन विशाल,
माँ  के  उर पर  शिशु-सा,  समीप  सोया,  धारा  में  एक द्वीप,
ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता हरने निज विरह शोक?
छाया की कोकी को विलोक !

 

पतवार घुमा, अब प्रतनु भार
नौका घूमी  विपरीत  धार।
डाँड़ों के  चल करतल पसार,   भर-भर  मुक्ताफल  फेन-स्फार,
बिखराती जल में तार-हार !
चाँदी  के  साँपों-सी  रलमल  नाचती  रश्मियाँ  जल  में  चल
रेखाओं-सी खिंच तरल सरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल;
अब  उथला  सरिता  का  प्रवाह,  लग्गी से  ले-ले सहज थाह
हम बढ़े घाट को सहोत्साह !

 

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर में आलोकित शत विचार!
इस धारा सा ही जग का क्रम,   शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम !
शाश्वत  नभ का नीला विकास, शाश्वत शशि का यह रजत हास,
शाश्वत लघु लहरों का विलास !
हे जग-जीवन  के  कर्णधार !  चिर जन्म-मरण  के आर-पार,
शाश्वत जीवन-नौका-विहार !
मैं भूल गया  अस्तित्व - ज्ञान, जीवन  का  यह  शाश्वत-प्रमाण
करता मुझको अमरत्व-दान !
 

पुस्तक | गुंजन कवि | सुमित्रानन्दन पन्त भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | कविता छंद | लावनी