बीती विभावरी जाग री

पीछे

बीती विभावरी जाग री !
     अम्बर पनघट में डुबो रही-
     तारा-घट ऊषा नागरी।
खग-कुल कुल कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
      लो यह लतिका भी भर लाई-
      मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमन्द पिये,
अलकों में मलयज बन्द किये-
      तू अब तक सोई है आली।
      आँखों में भरे विहाग री !

 

पुस्तक | लहर कवि | जयशंकर प्रसाद भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीत छंद |