ओ जीवन की मरु मरीचिका

पीछे

चिंता सर्ग-


ओ जीवन की मरु मरीचिका, कायरता के अलस विषाद!
अरे पुरातन अमृत! अगतिमय   मोहमुग्ध जर्जर अवसाद।
मौन! नाश! विध्वंस! अँधेरा!  शून्य बना जो प्रगट अभाव,
वही सत्य है, अरी अमरते!  तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।

 

पुस्तक | कामायनी कवि | जयशंकर प्रसाद भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | महाकाव्य छंद | लावनी