अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया

पीछे

अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया
रे मनुष्य ! तू कितने नीचे गिर गया
आज प्रलोभन-भय तुझसे करवा रहे
कैसे आसुर कर्म्म। अरे तू क्षुद्र है-
क्या इतना ? तुझपर सब शासन कर सके
और धर्म की छाप लगाकर - मूढ़ तू !
फँसा आसुरी माया में, हिंसा जगी
अथवा अपने पुरोहिती के मान की
ऋषि वसिष्ठ को, कुलगुरु को, इस राज्य के।
(वसिष्ठ से)
तुम हो त्राता धर्म्म मनुज की शांति के
यह क्या है व्यापार चलाया ? चाहिये
यदि मनुष्य के प्राण तुम्हारे देव को
ले लो कितने लोगे ये सब सौ रहे
       Û Û Û Û Û Û Û Û Û Û Û Û
जगन्नियन्ता का यह सच्चा राज्य है
सबका ही वह पिता; न देता दुःख है
कभी किसी को। उसने देखा सत्य को
हरिश्चन्द्र के; जिसने प्रण पूरा किया
उद्यत होकर करने में बलिकर्म्म के।
यह जो रोहित को बलि देते तो नहीं
वह बलि लेता; किन्तु मना करता इन्हें।
क्योंकि अधम है क्रूर आसुरी यह क्रिया
यह न आर्य पथ है, दुस्तर अपराध है
वह प्रकाशमय देव, न देता दुःख है।

पुस्तक | करुणालय कवि | जयशंकर प्रसाद भाषा | खड़ी बोली रचनाशैली | गीति नाट्य छंद |
विषय | अहिंसा,