आलोचना की स्वायत्तता

पीछे

आलोचना की भाषा शून्य में निर्मित नहीं होती; वह पहले ही से विविध सांस्कृतिक परतों से छनती हुई आती है और उस पर उन स्तरों की छाप भी होती है।
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विचारधारा के विरोध में जो जितने ही अंधे होते हैं, किसी-न-किसी विचारधारा की गिरफ्त में होते हैं। विडंबना यह है कि उस विचारधारा का उन्हें बोध नहीं होता, क्योंकि वे विचारधारा की प्रकृति से सर्वथा अनजान होते हैं। अक्सर वे राजनीतिक सिद्धांतों, धार्मिक मंत्रों और दर्शनों को ही विचारधारा समझते हैं, क्योंकि वे स्पष्ट शब्दों में परिभाषित और विवक्षित होते हैं। ....... इसके विपरीत विचारधारा अव्यक्त होती है, इसका स्वीकार अधिकांशतः अचेतन होता है, वह इतनी सामान्य और स्वाभाविक मालूम होती है कि तर्क-वितर्क से परे मानी जाती है। विचारधारा विचार मात्र नहीं, बल्कि अनुभूतियों की ऐसी संरचना है जिनमें अनेक प्रतीक, मिथक आदि भी घुले-मिले रहते हैं। 

पुस्तक | वाद विवाद संवाद लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना