आलोचना की भाषा

पीछे

अपने सर्जनात्मक रूप में आलोचना-कर्म मूलतः व्यक्तिगत प्रयास है, क्योंकि किसी कृति-संबंधी प्रत्येक सच्ची प्रतिक्रिया वैयक्तिक ही होती है। कृति जो अनुभव दे जाती है और वह अनुभव विचार-क्रम में जिस निर्णय का रूप लेता है, वह प्रथमतः वैयक्तिक ही होता है। यदि आलोचना में यह वैयक्तिकता न हो तो युग-युगांतर तक किसी कृति का एक ही अर्थ और मूल्य बना रहे, न उसमें निहित नए-नए अर्थ-स्तरों का उद्घाटन हो और न उन अर्थों के आधार पर पुनर्मूल्यांकन ही संभव हो। इसलिए एकांगी और पक्षधर कहलाए जाने का आरोप झेलते हुए भी सच्चा आलोचक अपने अनुभव एवं विवेक की वैयक्तिकता जाग्रत रखता है।              
......................


सच्चा आलोचक अपनी निजी प्रतिक्रिया के साथ ही स्वयं आलोच्य कृति को भी सामने रखते हुए समानधर्मा पाठकों एवं आलोचकों को विचार-विनिमय के लिए निमंत्रित-सा करता है ताकि मूल कृति के गिर्द निर्मित विभिन्न प्रतिक्रियाओं के द्वंद्व से सामान्य निर्णय तक पहुँचना संभव हो सके।
................


यदि आलोचना निष्क्रिय रसास्वाद नहीं, बल्कि सक्रिय मूल्यांकन है तो यह भी निश्चित है कि प्रत्येक मूल्यांकन एक वैचारिक संघर्ष है। साहित्य की कृतियाँ खाने की मेज पर करीने से लगाई हुई तश्तरियाँ नहीं हैं, जिनका रसास्वादन लेने के लिए मेहमान की तरह कोई आलोचक निमंत्रित हो। साहित्य में जो गहरे स्तर पर संपृक्त है और इस संपृक्ति के नाते साहित्य के वृत्तिर परिवेश से अपने को संबद्ध अनुभव करता है, वही आलोचना-कर्म की गंभीरता को भी समझता है। यदि जिंदगी में रोटी का हर टुकड़ा एक संघर्ष की उपलब्धि है तो किसी कृति से प्राप्त आस्वाद का हर क्षण भी संघर्ष का ही फल है। यही संघर्ष आलोचना की भाषा को जीवंतता प्रदान करता है। आचार्य शुक्ल की यथातथ्य, संयत, ओजस्वी, तेज-तर्रार, तल्ख और प्रसन्न भाषा इसी लड़ाकूपन के बीच बनी है। निराला ने इसी अर्थ में गद्य को ’जीवन-संग्राम की भाषा’ कहा है। पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर की भाषा का तेवर इसी संघर्ष की अदा से दिखा सके हैं, और मुक्तिबोध की ’एक साहित्यिक की डायरी’ के संवाद में इसी तनावपूर्ण भाषा का जीवंत संघर्ष है। 

पुस्तक | वाद विवाद संवाद लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना