चल मोरवा बारात रे

पीछे

हमारे साहित्य में ’आत्मा’ का प्रतीक ’हंस’ माना गया है तो ’मन’ का प्रतीक है ’मयूर’। ’मन मोर’ एक अति प्रचलित कथन है। आत्मा भले ही विमल हंस बनकर ’विरजं विशुद्धम्’ नील व्योम में विहार करे, परंतु मन तो बस मयूर बनकर नाचना ही पसंद करेगा। वैसे तो मन भी जानता है कि सत्ता की चरम रूप आत्मा ही है, देह और मन तो निर्मोक ही है। देह तो सीधे-सीधे वल्कल है, निर्मोक है, पर मन भी इस स्थूल निर्मोक के भीतर छिपा हुआ भावमय निर्मोक मात्र है और सत्ता का सही रूप इसके भीतर ’आत्मा’ बनकर ही प्रतिष्ठित है। यह वेदांत जानते-समझते भी मन मयूर निरंतर नव रसों की ’नौटंकी’ नाच रहा है। ऐसा क्यों ? वह अपने सही स्वरूप का विस्मरण क्यों कर बैठा है ? शायद इसलिए कि वह लीला खेल सके। लीला खेलने का लोभ ही तो परात्पर प्रभु को भी धरती पर खींच लाता है और वे पग में पैंजनी बांधकर, मयूर पुच्छ को सिर पर धारण करके लीला की बांसुरी बजाते हैं। यही नहीं जब वे मर्यादा पुरुषोत्तम का बाना लेते हैं, तो उस समय भी अपनी प्रिय ’दयिता’ परमा प्रकृति का मन रखने के लिए मायामृग के पीछे धनुष्य तानकर दौड़ते हैं ! तो फिर मैं क्या चीज हूँ ? बल्कि मेरे जैसे ’नाचीज’ के लिए तो ’चीज’ शब्द भी इतना भारी है के इसे मैं अपना विरुद नहीं बना सकता।
      मैं जानता हूँ, हंस बनना सबके वश की बात नहीं। अतः न सही हंस, कम-से-कम मयूर तो बनो। कुटिल काक बनने से तो यह लाख दर्जे अच्छा रहेगा। यों काल-धर्म तो काक-उलूक के ही अनुकूल है। आज जो रात्रि के अंधकार में कामना-विटप के मूल पर पंजे-चोंच रगड़कर निरंतर धरदार और तीक्ष्णतर बना रहा है वही आज नायक है, गणपति है, अग्रपूज्य है। तो भी मन के देवता से प्रार्थना है ऐसी महिमा से हमें वंचित किये रहे। उस महिमा, उस भूमा, उस ’इफरात’ समृद्धि को लेकर हम क्या करेंगे जो हमारे मनुष्यत्व को ही जड़ीभूत कर दे। 
 

पुस्तक | उत्तरकुरु लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध