मोह मुद्गर
पीछे’’भइयाजी, यह अपकर्म का महाभारत है’’ आज उपाध्याय की जबान पर जगदम्बा बैठ गयी है और वे आक्रोश को सुननेवाला एक श्रोता पा गये हैं-’’इस महाभारत में जूझते हैं हम और मौज मारते हैं महारथी लोग। हम तो शर्तबन्द कुली हैं एक तरफ ’साहब’ के या ’साहब के साहब’ के, तो दूसरी ओर प्रत्येक अँगूठाचिपोर ग्राम सभापति के। आज देश में अकर्म, कुकर्म, अपकर्म का कुरुक्षेत्र है और हम इस कुरुक्षेत्र के कुबड़े या विदूषक हैं। ताकधिनाधिन् और नाचो। ....क्यों नहीं ये कमीने हमें निश्चित ’कर्म’ देते और निश्चित ’कर्म’ की अवधि देते ? क्यों यह सारा इन्द्रजाल चल रहा है ?’’
मुझे याद आ गयीं अपने देहात की दो-चार अच्छी प्रतिभाएँ। प्रथम श्रेणी के एम.एस.सी., बी.एस.सी. और एम.ए., जो बी.डी.ओ. बनकर अपनी आत्मा को कितनी बड़ी सजा दे रहे हैं। यह आत्म-व्यथा वे सब मिलने पर सुनाते हैं। ग्रामसेवक ही नहीं ए.डी.ओ., बी.डी.ओ. कोई भी भीतर-ही-भीतर सुखी नहीं है। कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति चाहे वह कितना भी नीच क्यों न हो, कितना भी आदर्शहीन क्यों न हो, भले ही वह महास्वार्थी राक्षस हो तो भी यह असम्भव है कि चौबीस घण्टे वह मिथ्या नायकत्व को व्यथा न समझे, चौबीस घण्टों की विदूषकी और वह भी आजीवन के लिए उसे दुर्गन्धपूर्ण, कटु-सिक्त और हेय न लगे। बड़ी-बड़ी प्रतिभाएँ सरकारी सेवा के नाम पर आयीं, और आकर पछता रही हैं। पर अब जायँ तो कहाँ जायँ ?