दर्पण-विश्वासी

पीछे

दार्शनिकों ने माया-दर्पण का बखान किया है, सन्तों ने ’हिरदय-दरपन’ को धो-पोंछकर निर्मल-प्रसन्न रखने की बात की है, कवियों ने मन-दर्पण में ताक-झाँक और चार आँखें करके निर्मम विधाता को बार-बार फाँकी दी है; प्रेमियों ने नयन-दर्पण में ही भूख-प्यास बुझाकर गुजारा किया है, रसिकों ने लीला वधू के नथ-दर्पण में ही पंचम पुरुषार्थ सिद्ध किया है, क्षपणकों और तान्त्रिकों ने नख-दर्पण के भीतर भूत-भविष्य का चित्र देखने की चेष्टा की है, पण्डितों ने मति-दर्पण को विमल रखकर सृष्टि का रहस्य उद्घाटित और आहृत किया है। ऐसे ही और भी अनेक छोटे-मोटे दर्पणों के अलावे जल, आकाश, अन्तरिक्ष, मरुत-प्रवाह और विश्व-मानस (कार्ल युग) जैसे विशाल-विशाल दर्पण भी सृष्टि के हृदय में अवस्थित हैं। ये सारे दर्पण बड़े महिमामय हैं एवं बड़े ही अद्भुत हैं। परन्तु कल ही मुझे मालूम हुआ कि महज रुपये-दो रुपये का मेरा क्षौर-दर्पण भी कम नटखट और कम अद्भुत नहीं।

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध