एक महाश्वेता रात्रि

पीछे

मेरा जीवहंस ऊपर मँडराता रहा नील व्योम में, नील परमपद के मध्य और नीचे प्रभु के मन-समुद्र से उत्पन्न सदानीरा चाँदनी स्तब्ध-मन्द अविरल-अविराम बहती रही। मेरे मन के भीतर ’मौनं शान्ताकारम्’ नारायण की मूर्ति उद्भाषित हुई। मैं धीरे-धीरे स्थिर बिन्दु पर पहुँचता गया। रानी का श्लोक-गुंजन, उसकी वेणी-गन्ध, उसके दन्त-कुसुमों की झलक, और ऊपर से बजती भुवनमोहिनी वंशी का स्वर सब एक निराकार अनुभव के अन्दर विलीन होते गये, सब शान्त हो गया, और लगा कि जीवहंस अब परमपद के मध्य परम विश्राम पाने ही वाला है। अश्वत्थ और मोहक एवं तेजपुंज हो उठा। मुझे अनुभव हुआ कि मनुष्य की भाषा के सारे शब्दों को मौन ने बिद्ध कर दिया है। मौन के प्रवेश से उनका स्फोट शान्त हो गया है। मुझे अनुभव हुआ कि शब्द और मौन का खेल अद्भुत है। शब्द के भीतर मौन का प्रवेश ध्यान है। और मौन के भीतर शब्द का प्रवेश काव्य, दोनों के उपकरण एक ही हैं। मौन और शब्द, परन्तु अभिव्यक्ति की दिशाएँ परस्पर विरोधी हैं। एक का मुख भीतर होता है दूसरे का बाहर। एक कच्छप-वृत्ति है तो दूसरा ऊर्णनाभ-वृत्ति। मुझे अनुभव हुआ कि मौन के भीतर शब्द का प्रवेश एक यन्त्रणामय विकल प्रक्रिया को जन्म देता है। मौन की अतल गम्भीर अपारदर्शिता को छुरे की तरह काटते हुए शब्द भीतर निर्ममता से प्रवेश करता है और मौन के मध्य उपलब्ध ध्यान को, अनुभव को, बोध को काट-काटकर व्यक्ति-व्यक्ति को बाँट देता है। तभी मौन पूजा हो जाता है और अनुभव एक प्रसाद, एक तीर्थजल जिसमें शब्द का तुलसीदल पड़ गया है और जो अकेले-अकेले नहीं पिया जा सकता, वितरण करना ही पड़ता है। मदिरा, कविता और प्रसाद, तीन का स्वाद वितरण करके ही ठीक से उपलब्ध होता है। तीनों संकल्पित धन की तरह गोष्ठी-समर्पित होकर ही सार्थक होते हैं। इसी को कहते हैं लोक-संग्रह।

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध