एक महाश्वेता रात्रि

पीछे

यह पीपल दार्शनिकों का भी वृक्ष है। भारतीयों के मन पर यह आर्यों के आगमन के पूर्व से ही हावी है। मोहनजोदड़ो-हड़प्पा में प्राप्त अनेक मृण्मय मुहरों पर पीपल वृक्ष, पीपल पत्र, पीपल वृक्ष के नीचे आसीन एक ऊर्ध्व मेढ़, नग्न, पद्मासन स्थित पुरुष आदि चित्र मिलते हैं। तथ्य तो यह है कि मयूर, पीपल और वृषभ आर्यपूर्व भारतीय परम्परा के प्रतिदान हैं, जो आज भारतीय धर्म-साधना और कला-साधना पर छाये हुए हैं। आश्चर्य यह है कि पीपल शुद्ध आर्य वृक्ष बन गया और जनता द्वारा ’वासुदेव’ की संज्ञा पा गया। तथ्य तो यह है कि भारतीय संस्कृति एक है, अविच्छिन्न, अविच्छेद्य और अविभक्त है। आज यह कहना कठिन है, और साथ ही व्यर्थ श्रम है कि कौन आर्य है, कौन द्रविड़। मैं तो कहता हूँ कि यदि ऐसे ही आर्य-द्रविड़ विभाजन करते जाना है तो फिर एक दिन सभ्यता-संस्कृति की कौन कहे, प्रत्येक भारतीय के शरीर का विभाजन करना होगा। चाहे उत्तर प्रदेश हो या तमिलनाडु कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जिसके अंग का कोई-न-कोई हिस्सा आर्य या द्रविड़, यह ठीक करना मुश्किल न हो जाय। आखिर तीन हजार वर्षों का संयुक्त जीवन भी कुछ अर्थ रखता है, या नहीं ? पीपल का पेड़, मयूर, हुंकार भरता हुआ वृषभ और आसेतु हिमाचल लिंगपूजा एवं शेषशयन मूर्तियाँ बताती हैं के ये विभाजन वंचना के जाल हैं। ये प्रकृत आत्म-सत्य को ’डालर’ के हिरण्यमय पात्र से ढ़ँकने के प्रयत्न हैं।

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध