जन्मान्तर के धूम्र-सोपान

पीछे

’’यह रात है कि अफीम है !’’ कहकर नरेस मिस्त्री रोज सोने के पूर्व करवट बदला करते हैं। बाहर-बाहर माघ का सीपा पड़ता है, पाले से हाथ-पैर ठिठुरकर कठुआ जाते हैं; बाहर-बाहर टप-टप करके गिरती ओस घने मौन आच्छादन को और रहस्यमय तथा प्रेताविष्ट कर देती है; बाहर-बाहर धूम्र-धवल तुषार से भीगी कुँआरी कच्ची घास और कच्ची, और नरम हो उठती है। मेरे गाँव के चारों ओर पोस्ते के खेतों पर धब-धब बक-पाँखी श्वेत फूलों का आच्छादन है। इनकी फलियों के क्षत से नशा रिसता है और धीरे-धीरे इस भीगी रात में कमठाकर नीलवर्णी होता रहता है, परन्तु इनके फूल मुख खोले अपने अक्षत कौमार्य के साथ तुषार की धवल धारा में सोते रहते हैं। ठीक ऐसे ही दूर, अति दूर मानसरोवर में श्वेतकमलों की सम्पुटित पाँतें सो रही होंगी। ’निशीथ’ रात्रि की मध्य स्थिति का द्योतक शब्द है और इसका अनुभव हमें एक अतलता का स्वाद दे जाता है। माघ रात्रि में चारों ओर वातावरण में निशीथ की अतल गहराई रहती है जिसमें एक नशा, एक चुप-चुप स्पर्शमय अनुभव, एक आँखें मुँद जानेवाला स्वाद ओर-छोर व्याप्त रहता है। गोया यह माघ की आधी रात मोहक शिशिरयामिनी न होकर अफीम का एक फूल हो जो धीरे-धीरे खिलता हो और इस निशीथ क्षण में पूर्णतः खिल गया हो और बाहर-बाहर ही नहीं सृष्टि के सचराचर पुरुष-नारी के अंग-प्रत्यंग में भी अफीम के फूल खिल गये हों एक किसी जाग्रत् नीलकण्ठ पुरुष को छोड़कर।

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध