देह-वल्कल

पीछे

मेरे विद्याव्रत का आरम्भ उस दिन से नहीं जिस दिन चतुर्वेदी जी ने कान में -ऊँ भूर्भुवः स्वः....’ आदि कहा था बल्कि उस दिन से है जिस दिन तेली-वंशोत्पन्न मुंशी बलदेव राम ने शिशुकक्षा के टाट पर हाथ में खड़िया देकर कहा था, ’’एक खड़ी पाई खींच; फिर उसके माथे पर आड़ी पाई दे, फिर यहाँ एक गोला बना और उधर एक बाँह लटका-और कह बेटा, ’क’।’’ और मेरे अन्दर अक्षर ब्रह्म का प्रथम उदय हुआ और मैंने आदि अक्षर ब्रह्म स्वरूप ’क’ का वरण किया अपनी बाल-बुद्धि के अन्दर। लोग कहते हैं कि तेली रास्ता काटता है तो काम सिद्ध नहीं होता, क्या सही-साबुत घर लौटना भी किस्मत की बात है। और इधर, मैं भले ही त्रैलोक्य चूड़ामणि, सृष्टि ललाम, विद्यादिग्गज, टैगोर-आइन्स्टाइन न हो पाऊँ, पर अपने देश, अपने समाज, अपने पिता-पितामह के पापों का जाल काटते-काटते मुट्ठी-आध मुट्ठी जितना भी पा सका हूँ उसका आदि उत्स उसी सिद्धिदाता ’तेली’-गणेश में है। और जब-जब इस तेली-गणेश की सिद्धिदाता मुखाकृति स्मरण होती है मेरा बदतमीज अभद्र उच्छृंखल ’स्व’ अपने को पस्त और विनयावत पाता है। 

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध