रस-आखेटक

पीछे

विन्ध्याचल की पहाड़ियों में महुआ के काफी जंगल हैं। यहाँ महुआ वन अपने-आप उपजता है और खटीक आदि गरीब जातियों के लोग इसके फलों को इकट्ठा करते हैं। जब विरही यक्ष के मेघ रामगिरि पर झुकते हैं, जब कामियों की प्रिय ऋतु पावस धरती पर उतरती है, तब हिन्दुस्तान के गरीबों की मृत्यु क्षुधा का रूप धारण करके प्रकट होती है। उन बरसाती महीनों में यह महुआ ही उन खटीकों के प्राणों का आधार होता है। अरहर की थोड़ी-सी दाल में काफी महुआ के फूल और नमक डालकर पका लेते हैं। गलकर राबड़ी-जैसा हो जाता है। पर तासीर गरम है। इसलिए भैंस का मट्ठा डालकर चार महीने यही पीते हैं। यों अगर साल में एक दिन खाना रहे, तो इसका स्वाद बुरा नहीं। एक दिन के लिए विश्व का रूखा से रूखा खाद्य भी स्वादिष्ट लगेगा। पर इनका तो यही ओढ़न-डासन है।
       इस स्थल पर रस-आखेटक को अपने गाँव के चमारों का ग्रीष्मकालीन भोजन याद आ जाता है। लोग शायद विश्वास न करें। चैत में खलिहान में दाँय (दँवरी) करते समय पशुओं के गोबर में उनके निरन्तर अन्न खाते रहने से कुछ अन्न अनपचा रह जाता है। यह अन्न ये चमार गोबर में से बिन लेते हैं और इसे धोकर सुखाकर गरमी के बेकारी के दिनों में इसे खाते हैं। समस्त पूर्वी उत्तरप्रदेश में यह होता है। रस-आखेटक जब यह सब सोचता है तो उसकी आत्मा में घाव हो जाता है, उसका घोड़ा तनकर खड़ा हो जाता है, उसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध