उत्तरकुरु और कदलीवन

पीछे

कोरी सौंदर्य साधना, कोरा सौंदर्यबोध निरर्थक है। इसे शील से जोड़कर ही रचनात्मक और मंगलमय बनाया जा सकता है। अन्यथा अनृत मार्ग पर फिसल जाने का भय है। अनृत का चेहरा सदैव फूहड़ या वीभत्स ही नहीं होता। वह कभी-कभी इतना मनोरम, इतना सुंदर होता है कि उसे देखकर देवताओं का मन भी बलात्कारकामी हो जाये। तो धरती के मानुष को कितनी देर लगेगी ऋत-विरत होने में। अनृत की उंगलियाँ बड़ी सुंदर, बड़ी पतली परंतु बड़ी क्षुरधार और क्षुधातुर होती हैं। अतः मात्र सौंदर्यबोध और भोगवाद हमारी जीवन-साधना के लक्ष्य नहीं हो सकते। इससे मनुष्य न तो तुष्ट-पुष्ट होगा और न अहिंसक और निरुज ही। अहिंसा मानसिक निरुजता का लक्षण है, हिंसा क्षुधाकामी विकल मन का। अवश्य ही मैं ’रस’ का प्रबल पक्षधर हूँ। मैं रस को यानी सौंदर्यबोध को मनुष्यत्व का, मनुष्य के अंदर अंतनिर्हित वैष्णवता का, अनिवार्य लक्षण मानता हूँ। परंतु अकेले नहीं, एकांगी और एकमात्र रूप में नहीं। कर्मभूमि और मानुषी धरती में इसे ऋत और शील से नद्ध होकर चलना पड़ेगा। शीलरहित सौंदर्य अनृत है। भव्य होते हुए भी यह दिव्य और रम्य नहीं।
          .....अतः भोग नहीं, कर्म ही महान है। कर्म ही उपास्य है। कर्म ही मधुमय है। परिश्रम द्वारा लब्ध रूखी-सूखी भी मीठी लगती है। गैर की ड्योढ़ी पर बिना परिश्रम के प्राप्त मालपूए दैहिक और मानसिक निरुजता और संतोष नहीं दे पाते। उनमें वह रस कहाँ ? उनमें अपने पसीने का मधु तो नहीं मिश्रित है, तो वह स्वादिष्ट कहाँ से होगा ? परिश्रम ही जीवन की मधुमय नाड़ी है। हमारा पसीना पीकर ही सूर्य मधुमय होता है। हमारे पसीने की बूँदें ही खेतों में फसल के दानों को मधुमय करती हैं। अतः हम कर्मभूमि के निवासियों के लिए निरर्थक है उत्तरकुरु और व्यर्थ है कदलीवन। ये हमारे मानसिक अस्तित्व के सीमांत पर रहें। हम कभी-कभी अपने मनोमय पुरुष को वहाँ भेजकर छुट्टी या पिकनिक की मौज भले ही ले लें। परंतु हमारे कर्म-धर्म से उनका कोई वास्ता नहीं। हम तो इस कर्मभूमि के निवासी हैं और कर्म ही हमारे लिए मधुमय है।  

पुस्तक | उत्तरकुरु लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध