प्रेमा पुमर्थो महान्

पीछे

मानवीय प्रवृत्तियों का दमन सामन्ती दमन का ही एक अंग है। अमानवीकरण की यह प्रक्रिया शासक वर्गों के दमन का प्रमुख अस्त्र रही है। सामन्ती युग में इस दमन-कार्य के लिए शासक वर्ग धर्म का सहारा लेता था और, आधुनिक पूँजीवादी युग में धर्म के अतिरिक्त वैज्ञानिक-तार्किक-व्यावहारिक नीतिशास्त्र का भी। इस दिशा में स्वयं मार्क्स ने तो संकेत किया ही है, हर्बर्ट मार्कुजे ने इस दमन की व्याख्या के लिए ’इरोस एंड सिविलिजेशन’ नामक पूरी पुस्तक ही लिखी है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी में सूरदास आदि का भक्तिकाव्य इस सामन्ती दमन के विरुद्ध मानवीय विद्रोह था।
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प्रेम पाप नहीं, बल्कि मनुष्य का ’स्व-भाव’ है और इस स्वभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है-यह स्थापित करने के लिए ही द्विवेदीजी ने गोया ’अनामदास का पोथा’ नामक अपना अन्तिम उपन्यास लिखा। रैक्व की पीठ को जब से जाबाला का स्पर्श प्राप्त हुआ तभी से उसमें एक सनसनाहट-सी होती है और उसे वह खुजलाया करता है। भगवती अरुन्धती पूछती हैं तो वह कहता है  िकवह जो पाप का फल है। मैंने पाप किया था, उसी का दंड भोग रहा हूँ। इस पर भगवती समझाती हैं कि यह तो सनसनाहट है वह पाप के कारण नहीं है, मन के कोने में छिपी हुई किसी दुर्दम अभिलाष-भावना की देन है। यह बात तू कभी न सोच कि तूने पाप किया और उसका दंड भोग रहा है। नहीं, इसमें पाप की कोई बात नहीं है। कुछ देर बाद इस प्राण के उपासक ऋषिकुमार को दार्शनिक स्तर पर उसकी समस्या का समाधान करते हुए भगवती फिर बतलाती हैं कि तुम्हारा झुकाव प्राणतत्व की ओर है, और तुम ब्रह्म के प्रिय रूप  को अपनाने में समर्थ हो। महाज्ञानी याज्ञवल्क ने प्राण की उपासना करनेवाले को ’प्रिय ब्रह्म’ का अधिकारी बताया था। रैक्व यह गूढ़ दर्शन ठीक से समझ नहीं पाता तो भगवती उसे जनक-याज्ञवल्क संवाद का पूरा ब्यौरा देते हुए फिर कहती हैं कि ’प्रियता’ प्राण से ही तो प्रकट होती है तभी तो कहते हैं ’प्राण-प्रिये!’ निष्कर्ष यह कि तुम्हारा स्व-भाव प्रेम है। उसी के माध्यम से तुम सत्य का साक्षात्कार कर सकते हो। इस प्रकार ’अनामदास का पोथा’ मनुष्य की उस मूलभूत ’कामभावना’ की अकुंठ प्रतिष्ठा करता है जो पाप के नाम पर निर्मित समस्त वर्जनाओं को चुनौती देती है। ’प्राण’ शक्ति के रूप में कामभावना का निरूपण करके द्विवेदीजी यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह मनुष्य की आन्तरिक ऊर्जा है जो उसके विकास का बीज है। भगवती अरुन्धती की दार्शनिक व्याख्या एक प्रकार से प्रेमनिष्ठ भक्ति का ही मूलमन्त्र है।
      इस पापबोध जगानेवाले वर्ग से निपटने के लिए भक्तों के पास सबसे अमोघ अस्त्र था-प्रेम। आश्चर्य नहीं कि पुरोहिती हितों के पोषक पंडितों ने सबसे अधिक कोप इस ’प्रेम’ पर ही प्रकट किया। कोप का एक रूप तो यह है कि इसे अभारतीय कहकर अग्राह्य बना दिया जाए। विचित्र विडम्बना है कि हिन्दी भक्ति-काव्य के अनेक लोकवादी मूल्यों के प्रशंसक आचार्य शुक्ल ने भी भक्तिकाव्य के प्राण ’प्रेम’ को अभारतीय कहा। भक्ति-सम्प्रदाय में प्रेम का ही दूसरा नाम माधुर्य भाव है। यह माधुर्य भाव कबीर और जायसी में भी है तथा सूर और मीरा में भी। जायसी आदि सूफियों के काव्य में प्रेम का महिमा-गान देखकर आचार्य शुक्ल को कुछ ऐसा विश्वास हो चला कि यह माधुर्य भाव मूलतः फारसी परम्परा की वस्तु है और इस प्रकार अभारतीय है। उन्होंने कुछ कटुता के साथ लिखा कि ’’भारतीय भक्ति का सामान्य रूप रहस्यात्मक न होने के कारण इस ’माधुर्य भाव’ का अधिक प्रचार नहीं हुआ। आगे चलकर मुसलमानी जमाने में सूफियों की देखादेखी इस भाव की ओर कृष्णभक्ति शाखा के कुछ भक्त प्रवृत्त हुए। इनमें मीराबाई हुईं जो ’लोकलाज खोकर’ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रेम में मतवाली रहा करती थीं।’’ मीरा को व्यंग्य का लक्ष्य बनाने के बाद आचार्य ने लिखा कि ’’चैतन्य महाप्रभु में सूफियों की प्रवृत्तियाँ साफ झलकती हैं।’’ फिर निर्गुण धारा के सन्तों का ध्यान आया तो कहा कि ’’निर्गुण धारा के कबीर, दादू आदि सन्तों की परम्परा में ज्ञान का थोड़ा-बहुत अवयव है वह भारतीय वेदान्त का है, पर प्रेमतत्व बिलकुल सूफियों का है। इसमें से दादू, दरिया साहब आदि तो खालिस सूफी ही जान पड़ते हैं। कबीर में ’माधुर्य भाव’ जगह-जगह पाया जाता है।’’ इसके अतिरिक्त स्वयं ’’जायसी ने इश्क के दास्तानवाली मसनवियों के प्रेम के स्वरूप को प्रधान रखा है।’’
      इस प्रकार भक्तिकाल के प्रेम और माधुर्य भाव को फारसी की सूफी काव्य-परम्परा का प्रभाव कहकर आचार्य शुक्ल ने अपनी भारतीय परम्परा से उन्हें बाहर कर दिया। इस ’प्रेम’ को अभारतीय कहने का कारण यह है कि वह ’ऐकान्तिक’ और ’लोकबाह्य’ है। शुक्लजी की दृष्टि में एक तुलसीदास को छोड़कर प्रायः सभी भक्त कवियों का प्रेम ’ऐकान्तिक’ है। कबीर, सूर, मीरा आदि का प्रेम तो ’ऐकान्तिक’ है ही, शुक्लजी के अति प्रिय जायसी का ’पद्मावत’ भी एक नागमती विरहवाले प्रसंग को छोड़कर मुख्यतः ’प्रेमगाथा’ ही है।
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भक्तों के प्रेम ने यदि मध्ययुग में पंडितों के शास्त्र को चुनौती दी तो उसका आधार लोकजीवन है। आकस्मिक नहीं है कि इस शास्त्रविरोध में अग्रणी भूमिका उन्होंने अदा की जो समाज में ’पतित’ समझे जाते हैं, जाति से भी और परिवार से भी। उल्लेखनीय है कि ’चारु चन्द्रलेख’ की सबसे मधुर नारी-चरित्र ’नाटी माता’ हैं जो जाति से कारुनट हैं और गिरिधर नागर को प्रेम करने के कारण अपने-आपको ’नागर नटी’ कहती हैं, संक्षेप में ना-टी। तान्त्रिक साधनाओं के विस्तार का भ्रम पैदा करते हुए भी यह उपन्यास तन्त्र पर भक्ति की विजय का उद्घोष है। नागर नटी द्वारा गायी जानेवाली शिखरिणी ’गताऽहं कालिन्दीं गृहसलिलमानेतुमनसा’ प्रेमभक्ति के मधुर संगीत की अनुगूँज के समान समूचे उपन्यास पर छाई रहती है। कवि मंडन के ’अलि हौं तो गई जमुना जल कौ’ वाले सवैये में निहित भक्ति-भावना का यह जीवन्त निरूपण सृजन का शृंगार है। एक शृंगारी समझे जानेवाले सवैया को भक्ति की गरिमा प्रदान कर द्विवेदीजी ने परोक्ष ढंग से उस सुधारवादी दृष्टि पर भी चोट कर दी जो लोकभाव प्रसूत स्वच्छंद प्रेम की अनेक सरस रचनाओं को तथाकथित रीतिकाव्य के दरबारी दायरे में डाल चुकी है। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि ’सूर-साहित्य’ के अन्तर्गत ’ब्रजभाषा साहित्य में ईश्वर’ और ’ब्रजभाषा के कवि और युगलमूर्ति’ शीर्षक से दो परिशिष्ट भी सम्मिलित हैं जिनमें रसखान के अलावा मतिराम, देव, ठाकुर और पद्माकर जैसे रीतिवादी कहे जानेवाले शृंगारी कवियों की भी कविताएँ उद्धृत हैं।
      जिनके मानस में हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रतिमा कबीर के साथ एकाकार है वे शायद इन बातों से कुछ विचलित हों, किन्तु इसमें आश्चर्य के लिए जगह नहीं है। ’सूर-साहित्य’ से चलकर ही द्विवेदीजी ’कबीर’ तक पहुँचे थे, यह तथ्य है। और सच पूछिए तो इस विचार-यात्रा में कोई विरोध भी नहीं है। सूर से कबीर तक की यात्रा प्रेम के पन्थ की ही भाव-यात्रा है। सामाजिक विद्रोह का एक रूप वह भी है जो प्रेम की भाषा में अभिव्यक्ति पाता है। आकस्मिक नहीं है कि द्विवेदीजी के कबीर पर सूर की प्रेमभक्ति का गहरा रंग है। द्विवेदीजी के कबीर उनके सूर से निश्चय ही अधिक मुखर क्रान्तिकारी हैं और इसीलिए द्विवेदीजी उनकी ओर आकृष्ट भी होते हैं, पर ऐसा लगता है कि उनके अन्दर कहीं-न-कहीं सूरदास के रूप में एक मृदु-विद्रोही भी बैठा हुआ था जिसका प्रवेश साहित्य-साधना की उस वय में हुआ जिसका संस्कार जल्दी नहीं छूटता और प्रायः स्थायी हुआ करता है।
 

पुस्तक | दूसरी परम्परा की खोज लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना