अस्वीकार का साहस

पीछे

वस्तुतः बीसवीं सदी के चौथे दशक में विद्रोह फक्कड़पन के ही किसी-न-किसी रूप को लेकर साहित्य में प्रकट हुआ था। इसका एक रूप निराला के ’कुकुरमुत्ता’ (1940) के बड़बोलेपन में है तो दूसरा रूप राहुल सांकृत्यायन की ’वोल्गा से गंगा’ (1942) नामक कथाकृति में है जो भारतीय इतिहास की धक्केमार क्रान्तिकारी व्याख्या प्रस्तुत करती है। इसके साथ ही राहुलजी के घुमक्कड़पन की कहानियों का भी इससे कुछ नाता-रिश्ता है। आकस्मिक नहीं है कि इस काल के अनेक उपन्यासों के नायक घर-परिवार से मुक्त क्रान्तिकारी थे। नवीन ने जब यह गाया था कि ’ठाठ फकीराना है अपना, बाघम्बर सोहे अपने तन/ हम अनिकेतन, हम अनिकेतन’ तो वे उस दौर के मिजाज को ही व्यक्त कर रहे थे। इतिहासकारों के अनुसार यह काल घोर उथल-पुथल और मन्थन का काल था। गांधी-युग के आदर्शवाद का ढ़ाँचा जीवन के हर क्षेत्र में चरमरा उठा था। अनेक राजनीतिक और नैतिक आदर्श सन्दिग्ध हो उठे थे। यह वही काल है जब मार्क्स और फ्रायड दोनों के विचार एक साथ भारत के शिक्षित मध्यवर्ग को प्रभावित और आन्दोलित कर रहे थे। दूसरे महायुद्ध के कारण सामान्य जीवन के आर्थिक पक्ष पर जो प्रभाव पड़ा था उससे असुरक्षा की भावना और ज्यादा बढ़ी थी। हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या भी स्वाधीनता-संग्राम के सन्दर्भ में अत्यन्त उग्र हो उठी थी। बच्चन की ’मधुशाला’ का यह समाधान उस दौर के फक्कड़पन की ही उपज था: ’’बैर बढ़ाते मन्दिर-मस्जिद मेल कराती मधुशाला।’’ और ’’सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला।’’
       इस दौर के विद्रोह को यदि अपने अतीत से कोई नैतिक समर्थन मिल सकता था तो केवल कबीर से। जिस तरह व्यक्तिगत और सामाजिक पाखंड के प्रत्येक रूप के विरुद्ध आक्रोश इस दौर में था उसकी प्रतिध्वनि कबीर में ही सुनी जा सकती थी। किन्तु कुल मिलाकर यह विद्रोह भावात्मक और साहित्यिक ही था। विद्रोही कवि और लेखक इस मामले में पूरी तरह सतर्क थे कि उन्हें समाज-सुधारक समझने का भ्रम न हो। उन्नीसवीं सदी के समाज-सुधारकों की उपदेशात्मक भंगिमा और भाषा से इस दौर के साहित्य का तेवर साफ अलगाया जा सकता है। अलगाव के लिए उपदेश की शुष्कता से बचना आवश्यक था। फक्कड़पन का बाना शायद इसी आवश्यकता की उपज था।
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इधर कुछ उत्साहपरायण पंडित तुलसीदास-जैसे भक्तों की रचनाओं से दो-चार पंक्तियाँ निकालकर यह साबित करने की कोशिश करते पाए जाते हैं कि तुलसीदास अपने जमाने की राजसत्ता के विरोधी थे। ये प्रयास वस्तुतः उन किंवदन्तियों की ही परम्परा में आते हैं। ये प्रयास मध्ययुगीन सन्तों और भक्तों के मुख्य कथ्य के प्रति अपनी अवज्ञा सूचित करने के साथ ही मध्ययुगीन भारतीय समाज के मुख्य अन्तर्विरोध के प्रति भी घोर अज्ञान की सूचना देते हैं। राजसत्ता भक्तों के लिए सर्वथा उपेक्षा की वस्तु थी-उसके प्रति भक्तों के मन में न तो किसी प्रकार की भक्ति का भाव था न विरोध था। यह आवश्यक भी न था। क्योंकि साधारण जनता के जिन दुखों से भक्त कवि दुखी थे उनका सीधा सम्बन्ध आगरा या दिल्ली के तख्त पर बैठे बादशाह से उतना न था, जितना अपने गाँव के उस समाज से जिसका नियमन जातिधर्म के परम्परागत नियमों से होता था तथा जिसमें राजसत्ता के स्थानीय प्रतिनिधि गाँव के मालिकों के सहयोग से दमनकारी भूमिका निभाते थे। इस ग्रामीण व्यवस्था में, जहाँ परम्परागत जातिधर्म जीवन के समस्त क्रियाकलापों का नियामक था, सरकार की हैसियत एक बाहरी लुटेरे से अधिक न थी, जिसे बहुत कुछ अनावश्यक या फालतू मानकर भी काम चलाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में सरकार का विरोध विशेष अर्थ नहीं रखता। मुख्य शत्रु जबकि अपने अन्दर ही हो तो विरोध का लक्ष्य स्वभावतः वहीं होगा और चूँकि यह जातिव्यवस्था धार्मिक विधि-विधानों के रूप में ही समाज का नियमन करती रही है, इसलिए दलित जातियों का असन्तोष और आक्रोश भी प्रायः धर्म के ही रूप में प्रकट होता रहा है। इतने असन्तोष और आक्रोश के बाद भी यदि यह जातिव्यवस्था इतने दीर्घकाल तक बनी रही तो इसका कारण यह है कि इसके अन्दर हर विद्रोह को अन्तर्भुक्त करने की क्षमता रही है; एक साथ ही यह इतनी कठोर और इतनी लचीली रही है कि इसे चुनौती देनेवाले धार्मिक आन्दोलनों के अनुयायी भी अन्ततः एक जाति बनाकर इसकी एक इकाई के रूप में अन्तर्भुक्त हो गए।
      इस जाति-व्यवस्था के शिकार व्यक्ति जिस प्रकार अपनी अधोगति को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं और जिसमें न तो क्रोध का कोई निश्चित लक्ष्य दृष्टिगत होता है, न दुर्गति के लिए उत्तरदायी किसी निश्चित बिन्दु का पता चलता है, उसे देखकर यदि बैरिंगटन मूर जैसा समाजशास्त्री यह कहे कि किसी पाश्चात्य व्यक्ति को वह काफ्का के संसार का प्रचंड व्यंग्यचित्र प्रतीत होता है, तो कोई आश्चर्य नहीं !
      कबीर जैसे सन्त का विरोध सम्भवतः इसी सामन्ती-पुरोहिती दमन के चक्र से था, जिसमें जनसाधारण हिन्दु-मुसलमान दोनों ही पिस रहे थे। यह दमन चक्र किसी राजनीतिक अत्याचार से कितना अधिक कठोर और अमानुषिक है, इसे आज स्वाधीन भारत के क्रान्तिकारी को बतलाने की जरूरत नहीं है। इसलिए यदि कबीर ने अपने जमाने के किसी सुलतान को छोड़कर सामन्ती-पुरोहिती शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाई तो सिर्फ इसी कारण उनकी क्रान्तिकारिता कम नहीं हो जाती। इसलिए द्विवेदीजी के कबीर पर उँगली उठाने से पहले आज के क्रान्तिकारियों को अपने गरेबाँ में हाथ डालकर देखना चाहिए।
 

पुस्तक | दूसरी परम्परा की खोज लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना