जातीय बहिष्कार जाति-मुक्त नहीं करता

पीछे

अपना पैसा गाँठ में होने के बावजूद लन्दन जाने के लिए मोहनदास को दूसरों से कर्ज लेना पड़ा था। अगर न मिलता तो ? यह कैसी बिरादरी कि अपनों को मँझधार में धकेलकर समझते हैं कि उन्होंने धर्म की रक्षा की ? सगे बेगाने हो जाते हैं। हरि के बापू के पास तो राजकोट वापस आने के लिए भी पैसा नहीं था, फिर वे क्या करते ? भला हो उस दोस्त का जिसने उधार दे दिया। अपनों ने तो एक बार को हाथ फैलवा ही दिया ..... बाद में पैसा दे देने से कर्ज उतर गया पर सम्मान तो नहीं लौटा। कहने को तो रह ही गया कि पटवारी परिवार मोहनदास गाँधी की मदद न करता तो वह बैरिस्टर नहीं बन पाता। आदमी मिट्टी में दब जाए तो निकल सकता है पर अहसान तले से कभी नहीं निकल पाता।
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‘जातीय बहिष्कार जाति-मुक्त नहीं करता, काल कोठरी का अहसास कराता है।’     

पुस्तक | बा लेखक | गिरिराज किशोर भाषा | खड़ी बोली विधा | उपन्यास