रस-आखेटक

पीछे

मैं बीसवीं शती का जीव हूँ। मैं क्षण-भोग का विश्वासी हूँ। हवा, धरती और हरीतिमा ही मेरी नायिकाएँ हैं। मैंने कामरूपिणी की निरावरण कटि को देखा है, बंगाल की कालवैशाखी का फहराता आँचल पकड़ लिया है, पक्वतालफलोपम स्तनों वाली कन्या कुमारी से परिचय किया है, कुंकुम देशी की केसरी वर्णी मेखला के भीतर अथाह-अथाह झीलों का और उसमें प्रस्फुटित रक्त कमल का देवताओं की शैली में आस्वादन किया है। महावल्लीपुरम के समुद्र तट पर खड़े होकर दक्षिणा सुन्दरी की आँखों के ज्वार में मेरा मन तैर चुका है। मैं रस-आखेटक हूँ। पर मैं क्षणों का आखेट करता हूँ-एक प्रगाढ़, लम्बे अनुभव का आखेट करने की सामर्थ्य बीसवीं शती के क्षणभोगी मन को नहीं मिली है। एक हलकी मादकता, चेहरे पर उदित होती हुई चाँदनी-जैसी प्रसन्नता, वेणी के फूलों की गन्ध का झोंका, एक रेशमी नरम स्पर्श, इससे अधिक भोगने की सामर्थ्य हममें नहीं। इससे अधिक आगे जाने पर मन को पीछे ठेलकर शरीर आ जाता है और शरीर के आ जाने पर शरीर भोगता है मन को साक्षी बनाकर। पर मन का भोगना और है। मन भोगता है तो आत्मा को साक्षी बनाकर। वहाँ शरीर नहीं रहता है। कालिदास और प्रसाद में सामर्थ्य थी कि उनका मन एक लम्बे अनुभव का आखेट कर सके। पर हम ’हाइक्कू’ लिखते है और ’घने नुकीले प्रगाढ़ क्षण’ के अनुभव का ही आखेट करते हैं और अपनी पराजय छिपाने के लिए कहते है: ’’अब लम्बी कविताओं का युग गया।.......अब ’मिथों’ का सृजन नहीं हो सकता।’’
 

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध