फुटकल पंक्तियाँ

पीछे

मेघ बरसने के बाद आसमान शान्त और साफ हो जाता है, वैसे ही मन भी रति के बाद निर्मल, शुभ्र और कामनाहीन हो जाता है। परन्तु यह रति यदि समाज स्वीकृत न हो, व्यभिचार हो तो सत्पुरुष के मन में पश्चात्ताप की दीपशिखा भी जलने लगती है। उसकी रोशनी से भीतर-ही-भीतर ग्लानि द्वारा आत्म-दाह होने लगता है।
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कुसुम्भी रंग अनुराग का रंग है। वैष्णव रस-शास्त्र में राग की प्रगाढ़तम और आन्तरिक स्थिति में उसका रंग लाल माना गया है। इसके दो भेद हैं: कुसुम्भी और मजीठी। मजीठी राग तो सिर्फ राधा-कृष्ण-प्रेम में है, पर धरती के जीवों की उच्चतम प्रेम-सीमा को कुसुम्भी के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं।
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नारी रहस्य का सिन्धु है। बिना उसे प्यार किये-पराशक्ति और अपराशक्ति दोनों जागरित नहीं हो सकती। 
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मेरी समझ में धरती और नारी को असुन्दर और कुरूप कहनेवाला मनुष्य जाति का सबसे कड़ा द्रोही है। वह रस, प्राण और जीवन का स्रोत ही काट देना चाहता है। 
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मैं मानता हूँ कि धरती का पुण्य उसकी सुषमा में व्यक्त है और सृष्टि का पुण्य नारी में। अतः जो इस सत्य को अस्वीकार करता है, वह यदि सत्य भी हो तो मनुष्यद्रोही सत्य है और इस सत्य के माध्यम से विकसित साहित्य भी मनुष्यद्रोही है।
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रात, नारी और कस्तूरी मृग, तीनों की माया का स्रोत नाभि के नीचे है। कस्तूरी मृग की नाभि के नीचे कस्तूरी की गाँठ है, नारी की नाभि के नीचे सम्मोहन की गाँठ है, उसी भाँति रात्रि की नाभि के यानी अर्धरात्रि के नीचे रहस्य की गाँठ है। ’योगिनी तन्त्र’ इस गाँठ को ही ’महारात्रि’ कहता है।
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कहते हैं कि किसी-किसी चेहरे को देखकर दृष्टिस्नान का सुख मिलता है, दृष्टि दर्पण-सी निर्मल हो उठती है। शरीर के भीतर तीन दर्पण हैं: मुखदर्पण, दृष्टिदर्पण और मनदर्पण- तीनों क्रमशः जल, रूप और स्नेह में स्नान करके द्युतिमान, निर्मल और सचेत होते हैं।
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मारदहन के बाद पार्वती-वरण, काम और मोक्ष का, प्रवृत्ति और निवृत्ति का परस्पर वरण है। निवृत्ति प्रवृत्ति को शुद्ध पावन करती है और प्रवृत्ति निवृत्ति को समृद्ध और संपृक्त।
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मौन का एक दूसरा नाम है ’बुद्ध-हृदय’। यह बुद्ध-हृदय सबके अन्दर है।
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नदी के माने ही हैं ’रोध’ और ’तट’। प्रेम के माने ही है अनुशासन। प्रवृत्ति को पूर्ण करती है निवृत्ति। रमणतृषा को पवित्र करता है संयम-व्रत।
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सृष्टि तभी तक सुन्दर और कोमल है जब तक हम रति-समर्थ हैं। तन से न सही तो मन से ही।
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क्रोध की कुछ वैष्णव किस्में भी होती हैं। ऐसे क्रोध का भीतर जैसे-जैसे विस्तार होता है; आदमी अपनी लघुता और मामूलीपन को छोड़ता ऊपर उठता जाता है-उसकी सारी दीनता पीछे छूट जाती है और वह मुक्त अहंकारस्वरूप हो जाता है तो ताल ठोंककर काल से भी माथा लड़ा सकता है।
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कोई भी जीवन-दर्शन जो लालित्य और क्रोध को समान उपयोगी स्वीकृत नहीं करता वह गान्धारी-दर्शन है।
 

पुस्तक | रस-आखेटक लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध