बहुरूपी

पीछे


आज का साहित्यकार एक ही प्रतिबद्धता को श्रेय का मार्ग मानता है। पर एकहरी प्रतिबद्धता और एकहरा जीवन अस्वाभाविक तथ्य है। एकहरा जीवन या तो पशुओं का होता है या रोबॉटों का। मनुष्य के लिए सम्भव ही नहीं कि वह एकहरा जीवन जिये। मनुष्य का जीवन अपने साधारण से साधारण रूप में बहुपहली, बहुमुखी और उलझावपूर्ण रहता है। एक सेल(कोशाणु) के प्राणी अमीबा द्वारा ही एकपहलू, एकहरा जीवन जीना सम्भव है। मनुष्य एकहरा जीवन नहीं जी सकता। तो साहित्यकार जैसा संवेदनशील प्राणी एकहरी जिन्दगी कैसे जिएगा ? उसे तो दुहरा-तिहरा जीवन जीना ही है, क्योंकि दुपहली, तिनपहली, बहुपहली सिसृक्षा के आवेश से वह ग्रस्त रहता है। सिसृक्षा का एक पहलू है ’आत्मान्वेषण’, जो वेदान्त सूत्रों के रचयिता और नयी कविता के कवि-दोनों को समान रूप से करना पड़ा है। दूसरा पहलू है ’आत्मान्वेषण’ के सत्यों को एक गठन और व्यवस्था देकर लोक के सम्मुख उपस्थित करना। यह काम दार्शनिक और विचारक कवि, लेखक करता है, जैसे व्यास, ग्येटे अथवा ज्याँ पाल सार्त्र। उसका अन्य पहलू होता है उन विराट् सत्यों द्वारा व्यक्त मानवीयता को वक्रोक्तियों, कहानियों, नाटकों और ’फेबुलों’ (बोध-कथा) में बाँधकर लोक के सम्मुख उपस्थित करना। उदाहरण के लिए व्यास का ’ब्रह्मसूत्र’ उनका ’आत्मान्वेषण’ वाला पहलू है, जो उनके ’अकेलेपन’ को व्यक्त करता है तो ’श्रीमद्भागवत’ उनका उपयुक्त तीसरा पहलू है, जो उनके ’लोक-संयुक्त’ रूप को व्यक्त करता है। व्यक्तित्व तो माध्यम है-निष्क्रिय माध्यम। यह सक्रिय तब होता है, जब इसमें ’स्व’ का आवेश होता है अथवा ’लोक-मन’ का आवेश होता है। दोनों दो किस्म की सिसृक्षा, दो किस्म का जीवन बारी-बारी से एक ही व्यक्तित्व के अन्दर आरोपित करते हैं। (यह दुहरा जीवन दरअसल दुहरा नहीं, बल्कि एक पर कई-कई परतोंवाला है। पर मोटे तौर पर उन्हें ’स्व’ और ’लोक’- दो वर्गों में विभाजित करके ’दुहरा’ कहते हैं।) वास्तव में यह व्यक्तित्व का विखण्डन नहीं, व्यक्तित्व का बहुमुखीपन या पूर्णता है। व्यक्तित्व का विखण्डन तो तब होता है जब इस दुहरे जीवन के दोनों पहलू एक-दूसरे से सहयोग नहीं कर पाते हैं, जब वे परस्पर सहयोगी न होकर परस्पर विरोधी हो जाते हैं और एक-दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं। पर जिस प्रतिभा के अन्दर ये परस्पर पूरक और सहयोगी हो जाते हैं, उसके व्यक्तित्व को ये अधिक प्रामाणिकता और पूर्णता प्रदान करते हैं। सत्य के कई पहलू होते हैं। जो व्यक्तित्व जितने ही अधिक पहलुओं को पहचाने, वह उतना ही अधिक प्रामाणिक और सम्पृक्त है।

 

पुस्तक | प्रिया नीलकण्ठी लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध