मधु-माधव

पीछे

वसन्त उल्लास की ऋतु है। वैष्णवों ने इसी उल्लास को रस की दीक्षा का माध्यम बनाया है। इसमें न तो ग्रीष्म की रूमानी दग्धता है और न पावस की पच-पच पनियल हरी-हरी मादकता। वसन्त के सौन्दर्य में जो उल्लास मिलता है वह जैविक (बॉयलॉजिकल) नहीं है। हाँ, ऐसा माना जा सकता है कि यह एक सगुण अनुभूति है और इसकी सगुणता इसे दे हके अन्दर स्थित उन सहस्त्र शम्पा-पथों से मिली है जिन्हें शिराधमनी और स्नायु कहते हैं और जिनसे होकर यह अनुभूति अतिमा के स्तर तक पहुँचती है। अतिमा (ट्रान्सेण्डेन्स) में पहुँचकर यह दैहिक अनुभूति साधारणीकृत होकर सात्त्विक सगुण अनुभूति बन जाती है। इसी से इसमें रसबोध मिलता है परन्तु ईहा नहीं। क्षुधा या ईहा तो लालसा काधर्म है, उल्लास का नहीं। शुद्ध दैहिक संवेदन में ईहामृग सदैव घात लगाये दुबका हुआ बैठा है। पावस के श्याम मेघों और श्यामल हरीतिमा में इसी लालसा का प्रबल वेग नित्य फूटता रहता है। देह और मन या तो व्यथित हो जाता है अथवा उत्तेजित-पर वसन्त-श्री में निरन्तर उल्लास है। इसमें प्रफुल्लता है पर उत्तेजना नहीं। जीवन में ऐसे क्षण कितने भी कम क्यों न आएँ, पर आते अवश्य हैं, जब हमारा सौन्दर्य-बोध ईहा-मुक्त होता है।  

पुस्तक | प्रिया नीलकण्ठी लेखक | आ0 कुबेर नाथ राय भाषा | खड़ी बोली विधा | निबन्ध
विषय | वसंत,