कहाँ जाने एक कवि आ गया

पीछे

जानती है, अनादि काल से तितली फूल के इर्द-गिर्द चक्कर काट रही है, लता वृक्ष को आच्छादित करके उल्लसित हो रही है, बिजली मेघ के साथ आँख-मिचौनी खेल रही है, कुमुदिनी चन्द्रमा की प्रतीक्षा में व्याकुल है। किसी ने तो इन बातों की ओर ध्यान नहीं दिया, किसी ने इसका रहस्य समझने का दावा नहीं किया, सबकुछ तो चुपचाप अपनी-अपनी गति से चल रहा था। कहाँ जाने एक कवि आ गया। उसने चिल्लाकर कहा, ‘मुझे मालूम है, मैं इस गुप-चुप चल रही प्रेम-वार्त्ता को पहचान गया हूँ। सुनो संसार के स्त्री-पुरुषों, मैं आँखों की भाषा जानता हूँ, मैं भुजाओं की भाषा जानता हूँ, मैं लुका-चोरी की भाषा जानता हूँ, मैं सब जान गया हूँ!‘ उसी दिन तो सारा प्रकृति-व्यापार गड़बड़ा गया।
 

पुस्तक | अनामदास का पोथा लेखक | आ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी भाषा | खड़ी बोली विधा | उपन्यास