प्रकृति को सुनियन्त्रित रूप से चलाने का नाम ही संस्कृति है

पीछे

“देख रहे हो न, कि मृत्यु सबको निगलने के लिए मुँह बाए खड़ी है, और फिर भी लोग जीना चाहते हैं ? सब मर जा सकता है, पर जीने की इच्छा नहीं मरती।“
“हाँ माँ, लोग मरना नहीं चाहते, जीना चाहते है। सब जीना चाहते हैं।“
“यही क्या वह चीज नहीं है जो विनाशमान पदार्थों के बीच अविनश्वर है ?- विनश्यत्स्वविनश्यन्तम् ? दुर्वार जिजीविषा! ज्ीते रहने की इच्छा!“
“हाँ माँ।“
“मुझे लगता है बेटा, जिसे लोग ‘आत्मा‘ कहते हैं वह इसी जिजीविषा के भीतर कुछ होना चाहिए। वे जो बच्चे है, किसी की टाँग सूख गई है, किसी का पेट फूल गया है, किसी की आँख सूज गई है--ये जी जाएँ तो इनमें बड़े-बड़े ज्ञानी और उद्यमी बनने की सम्भावना है। सम्भावना की बात कर रही हूँ। अगर यह सम्भावना नहीं होती तो शायद जिजीविषा भी नहीं होती। आत्मा उन्हीं अज्ञात-अपरिचित-अननुध्यात सम्भावनाओं का द्वार है। मैं अपनी बात ठीक से कह रही हूँ, बेटा ? शायद नहीं।“
“इतना समझ रहा हूँ कि सम्भवना है, और इसीलिए जिजीविषा भी है। पर ‘आत्मा‘ नहीं समझ रहा हूँ।“

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“देख रे, सृष्टि चलती रहेगी। जो लोग अलग बैठकर इसे बन्द कर देने का सपना देखते हैं वे भोले हैं। जिजीविषा है तो जीवन रहेगा, जीवन रहेगा तो अनन्त सम्भावनाएँ भी रहेंगी। सब चलता रहेगा। यही प्रकृति है। इसे सुनियन्त्रित रूप से चलाने का प्रयास शुभ है। वही संस्कृति है। प्रकृति को सुनियन्त्रित रूप से चलाने का नाम ही संस्कृति है।“
“हाँ, माँ।“
“इसीलिए ऋषि लोग स्नातक को उपदेश देते हैं कि सन्तान-परम्परा को नष्ट न होने देना-‘प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।‘ प्रकृति को मानकर ही संस्कृति की ओर जाया जा सकता है, अस्वीकार करके चलना तो विकृति ही होगा।“

पुस्तक | अनामदास का पोथा लेखक | आ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी भाषा | खड़ी बोली विधा | उपन्यास