परंपरा और प्रगति

पीछे

रचना की महानता से ही आलोचना महान होती है। यह छायावादी रचना का वैभव ही था जिसने हिंदी में आलोचना के मान को ऊँचा उठा दिया; अन्यथा द्विवेदी-युग में समालोचना का मान क्या था? परोक्ष रूप से छायावाद ने साहित्य के सामान्य पाठकों की रुचि इतनी परिष्कृत कर दी और काव्य-संबंधी सूझ-बूझ इतनी गहरी कर दी कि आलोचना का सामान्य स्तर भी बहुत ऊपर उठ गया। युग-प्रवर्तक आलोचक आलोचना के इसी सामान्य स्तर के अनुसार होते हैं। जिस तरह पानी के स्तर के अनुसार ही कमल-नाल बढ़ता चलता है, उसी तरह साहित्य के सामान्य-स्तर के अनुसार ही कवि, लेखक और आलोचक बढ़ते हैं। छायावाद ने यही सामान्य-स्तर ऊपर उठा दिया।
      कविता के अतिरिक्त हिंदी गद्य-शैली को छायावाद ने कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, इसे समझने के लिए छायावाद-युग के स्वस्थ, सशक्त और मांसल गद्य के सामने द्विवेदी-युग के गद्य का अस्थि-पंजर रख लेना पर्याप्त है।
      इतने बड़े परिदृश्य में छायावाद को रखकर देखने से पता चलेगा कि उसने हिंदी साहित्य में कितना बड़ा ऐतिहासिक कार्य किया।
      इस ऐतिहासिक सार्थकता से ही छायावादी कविता के स्थायी तत्वों पर प्रकाश पड़ता है। अपनी ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति करते हुए छायावाद ने साहित्य में कुछ स्थायी महत्व की भी चीजें दीं। उसमें अपने युग को प्रभावित करने के साथ ही भावी युगों के मानव-समाज को भी रसमय तथा प्रेरित करने की सामग्री है। छायावाद का स्थायित्व उसके व्यक्तिवाद में नहीं, उसकी आत्मीयता में है; काल्पनिक उड़ान में नहीं, आत्म-प्रसार में है; समाज-भीरुता में नहीं, प्रकृति-प्रेम में है; प्रकृति-पलायन में नहीं, नैसर्गिक जीवन की आकांक्षा में है; आवेगपूर्ण भावोच्छ्वास में नहीं, संवेदनशीलता में है; सौंदर्य की कल्पना में नहीं सौंदर्य की भावना में है; स्वप्न में नहीं, स्वप्न की वास्तविक आकांक्षा में है; अज्ञात की जिज्ञासा में नहीं, ज्ञान के प्रसार में है; आदर्श में नहीं, यथार्थ में है; कल्पना में नहीं, वास्तविकता में है; दृष्टिकोण में नहीं, दृष्टि में है; उक्ति-वैचित्र्य में नहीं, अभिव्यंजना के प्रसार में है।
      छायावादी कविता की आत्मीयता, प्रकृति-प्रेम, सौंदर्य-भावना, संवेदनशीलता, अथक जिज्ञासा, जीवन की लालसा, उच्चतर जीवन की आकांक्षा और इन सबके लिए संघर्ष करने की अनवरत प्रेरणा, छायावादी कविता का स्थायी संदेश है। छायावाद हमें रसमग्न करके निष्क्रिय नहीं बनाता, बल्कि उद्बुद्ध करके सक्रिय बनाता है। वह हमारी भावनाओं को व्यापक, अनुभूति को गहरी और भावों को परिष्कृत तथा परिवर्तित करता है।    
      निःसंदेह छायावाद का यह सारा प्रभाव जीवन के एक सीमित क्षेत्र में ही पड़ता है। उसमें कल्पना अधिक, वास्तविकता कम थी और जो वास्तविकता थी भी, वह प्रायः मानव-जीवन के एकदेशीय प्रेम-संबंधी थी। व्यापकता के अभाव में उसकी प्रभाव-शक्ति भी सीमित हो गई। तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर छायावाद में सूर-साहित्य की अपेक्षा वास्तविकता कम है और तुलसी-साहित्य की अपेक्षा व्यापकता बहुत कम है। वास्तविकता की मात्रा के अनुसार ही छायावाद को हिंदी साहित्य में भक्ति-काव्य के बाद द्वितीय स्थान दिया जाता है और यह गौरव असाधारण नहीं है।

पुस्तक | छायावाद लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना