फुटकल पंक्तियाँ

पीछे

कविता में जहाँ देवताओं के प्रेम का वर्णन होता था, वह स्थान साधारण मनुष्य ले ले-यह जनतांत्रिक भाव की विजय है; यह मध्यवर्ग की पहली सामाजिक स्वाधीनता है।
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छायावादी कवियों ने जो आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा प्रकट की, वह वस्तुतः आत्म-प्रसार की आकांक्षा थी।
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जब तक हम अपनी क्षुद्र सीमाओं में बँधे रहकर उस सीमा की त्रुटियों पर विचार करते हैं, हमारी दृष्टि और बुद्धि भी उसी सीमा से प्रभावित रहने के कारण सोचने में असमर्थ रहती है। लेकिन ज्योंही हम उससे ऊपर उठकर विराट परिदृश्य में उसे देखते हैं, काफी-कुछ समझ में आ जाता है।
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व्यक्ति को अपनी विराटता का बोध-यही व्यक्तिवाद है।
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आधुनिक व्यक्ति का प्रकृति की ओर दौड़ना व्यक्तिगत स्वच्छंदता की आकांक्षा के लिए तो था ही, व्यक्तिगत स्वाधीनता का परिणाम भी था।
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यह सच है कि विज्ञान के द्वारा प्रकृति से संघर्ष करते हुए भी आधुनिक मानव ने उससे प्रेम किया।
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जिस युग में मनुष्य ने प्रकृति पर सबसे अधिक विजय प्राप्त की, उसी समय उसने प्रकृति पर सबसे अच्छी कविताएँ लिखीं। वाल्मीकि-कालिदास का प्रकृति-काव्य प्रकृति पर आरंभिक विजय का परिणाम है तो छायावादी कवियों का प्रकृति-चित्रण आधुनिक विजय का।
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कालिदास का मेघ स्वयं नहीं सोच सकता और न कह ही सकता था कि वह ’सुरपति का अनुचर’ है अथवा ’जगत्प्राण का सहचर’ है। उसके बारे में यह सब तो चेतन-अचेतन में विवेक खो देने वाला कामार्त यक्ष ही कह सकता है। लेकिन पंत का बादल अपनी चेतना के बारे में स्वयं सतर्क है।
    इस प्रकार उपेक्षित प्रकृति को छायावादी कवि ने सम्मान दिया और उसे मध्ययुगीन बंधनों से मुक्त किया। यदि प्रकृति ने मध्ययुगीन बंधनों से मानव को मुक्त किया तो मानव ने भी बदले में प्रकृति को मुक्त किया। .......... प्रकृति को मुक्त किये बिना मनुष्य अपनी मुक्ति का पूरा-पूरा उपभोग कर ही नहीं सकता।
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संपर्क में आते ही प्रकृति मनुष्य के लिए सहचरी, सखी, प्रेयसी, माँ सबकुछ हो गई। ... पहले के कवियों ने प्रकृति के इस विराट रूप को नहीं देखा था।
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’भावों भरी’ का प्रमाण-पत्र पाकर भी हरिऔध की रजनी भावशून्य है, लेकिन प्रसाद की यामिनी उस प्रमाण-पत्र के अभाव में भी भावप्रवण है।
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द्विवेदी-युग का काव्य एक प्रकार से अनाथालय प्रतीत होता है, जिसमें नारी को आश्रय देने के साथ ही बंदिनी भी बना दिया गया और इस तरह वह अपने सहज जीवन से विच्छिन्न कर दी गई।
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छायावादी कवियों ने प्रेम को जो इतनी प्रधानता दी, उससे नीरस जीवन में सरसता का संचार हुआ। सुधार-युग की अस्वाभाविक सधुक्कड़ी वृत्ति से छुट्टी मिली; नीरस जीवन-यापन के स्थान पर रागात्मक जीवनचर्या आरंभ हुई; जीने का स्वाद कुछ और बढ़ गया। साथ ही मध्ययुगीन ओछी रति-भावना से ऊपर उठकर मनुष्य प्रेम की उच्च भूमि पर विचरण करने लगा। ........ इस उदात्त भूमि पर आकर प्रेम मानवतावाद का पर्याय हो जाता है। 
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छायावादी प्रणय-भावना स्त्री और पुरुष दोनों के पारस्परिक मानस-द्वंद्व का परिणाम है।
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छायावादी प्रेम-भावना की एक विशेषता उसका भावावेग है।
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भारतवासियों ने वर्तमान पराधीनता के अपमान को भूलने के लिए अतीत के स्वर्ण-युग का सहारा लिया। वर्तमान की हार का उत्तर उन्होंने अतीत की जीत से दिया। हीनता का भाव दूर हुआ। जो जाति वर्तमान में विभाजित थी, वह अतीत की पृष्ठभूमि पर एक हो उठी। इस तरह अतीत के पुनरुत्थान ने संपूर्ण देश में एक जातीय अथवा राष्ट्रीय भावना का सूत्रपात किया।
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यदि छायावादी कवि इतना कल्पना-प्रवण न होता तो उसे दुःख की इतनी तीव्र अनुभूति भी न होती। व्यथा के क्षणों में कल्पना उसके लिए अभिशाप हो गई। उसने अपने अभावों को कल्पना के द्वारा बहुत बढ़ाकर देखा। यों भी कल्पना के रथ पर चढ़कर वह वस्तुस्थिति से बहुत आगे निकल गया था। लेकिन इस दौड़ में एक रिूथति ऐसी आ गई जब तनाव बढ़ गया। वास्तविकता पीछे खींचने लगी और आकांक्षा आगे। इस खींचतान में, जैसा कि हमेशा होता है, वास्तविकता प्रबल पड़ी; फलतः आकांक्षाएँ टूटने लगीं। छायावाद आँसुओं से गीला हो उठा। कहा भी है-आशा हि परमं दुःखम्।
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शब्द-समूह रूप-विन्यास का मूलधन है। शब्दों की सामग्री को नाना रूपों में सजाकर कविता में रूप-संबंधी भंगिमा लाई जाती है। जिन शब्दों के सहारे एक कवि एकदम सीधी-सादी सपाट कविता लिखता है, उन्हीं को नवीन क्रम में सजाकर भावुक कवि मार्मिक सौंदर्य पैदा कर देते हैं। द्विवेदी-युग के कवियों ने जिन शब्दों के द्वारा घोर इतिवृत्तात्मक और तथ्यपरक कविताएँ लिखीं, प्रायः उन्हीं को लेकर छायावादी कवियों ने नया चमत्कार पैदा कर दिया।
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भाषा शब्दों की संख्या से धनी नहीं होती, धनी होती है उनकी भाव-व्यंजकता से। द्विवेदी-युग की कविता की तुलना में छायावाद की समृद्धि का रहस्य यही है।
 

पुस्तक | छायावाद लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना