रहस्यवाद

पीछे

रहस्यवाद का एक निश्चित दर्शन है जिसके अनुसार सत्य ‘रहस्य’ है और उसका केवल ‘दर्शन’ होता है। सत्य का दर्शन सब समय नहीं होता। विशेष व्यक्ति विशेष क्षण में ही सत्य को देख सकते हैं। ऐसे विशेष व्यक्ति को विशेष प्रकार की दृष्टि प्राप्त होती है जिसे कभी-कभी ‘अन्तर्दृष्टि’ भी कहते हैं। प्राचीन काल में ऐसे सत्य-द्रष्टा ‘ऋषि’ कहलाते थे और ‘कवि’ भी, जिसका अर्थ होता था ‘द्रष्टा’। ‘धर्मस्य तत्व निहितं गुहायाम्’ एवं ‘ऋषियो मंत्र-द्रष्टारः’ जैसे वाक्य रहस्यवाद के रहस्य और दर्शन के प्राचीन संकेत हैं।
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रहस्यदर्शी इन्द्रिय-बोध के साथ-साथ बौद्धिक ज्ञान का भी निषेध करता है। रहस्य-ज्ञान में इन्द्रियों को प्रायः बाधक कहा गयाहै और बुद्धि को ज्ञान का शत्रु। रहस्यवादियों ने तर्क और बुद्धि का विरोध किया है।
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सच पूछा जाये तो रहस्यवाद ज्ञान से अधिक ‘अनुभूति’ है। इस रहस्यानुभूति की सामान्यतः चार विशेषताएँ होती हैं- अनिर्वचनीयता, झलक, क्षणिकता एवं किसी विराट सत्ता द्वारा पूर्णतः अधिकृत होने की अनुभूति।
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रहस्यवाद एक निजी विश्वास है, जिसके अनुसार सत्योपलब्धि नितान्त निजी एवं वैयक्तिक वस्तु है और किसी सत्यकथन की सत्यता उस कथन से उत्पन्न होने वाली अनुभूति की तीव्रता से ही मापी जा सकती है। फलतः रहस्यवादी कविता का सृजन ही नहीं, बल्कि ग्रहण भी नितान्त निजी एवं वैयक्तिक कार्य है।
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काव्य में रहस्य-भावना एक प्रकार से ‘परोक्ष की जिज्ञासा’ है।
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असीम की तो कोई निश्चित सीमा नहीं, इसलिए उसका अज्ञात रहना स्वाभाविक ही है। आधुनिक रहस्यवादी कवियों ने उनके प्रति बराबर अनजान संकेत ही किये हैं; क्योंकि वस्तुतः आनेवाली दुनिया के बारे में उनकी जानकारी नहीं के बराबर थी। प्राचीन मर्यादाओं की स्पष्ट जानकारी उन्हें न थी; नवीन समाज-व्यवस्था उनके लिए अज्ञात ही नहीं, अव्यक्त भी थी। इसी को महादेवी जी ने ‘अव्यक्त पूर्णता’ कहा है और इसके विपरीत प्राचीन समाज-व्यवस्था को ‘व्यक्त अपूर्णता’। फलतः उनके अनुसार ‘अपनी व्यक्त अपूर्णता को अव्यक्त पूर्णता में मिटा देने की इच्छा’ ही रहस्यवाद है।
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रहस्यवादी काव्य में अस्पष्टता का बड़ा प्रमुख स्थान है और इसे कवियों ने अनेक प्रकार के सुन्दर प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया है। इनके यहाँ ‘स्वप्न’ अथवा ‘स्वप्न मिलन’ का जो इतना अधिक उल्लेख मिलता है, वह इसी भावना का प्रतीक है।
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आधुनिक रहस्यवादी कवि ने शेष प्रकृति में अपने स्फीति अहं को प्रतिष्ठित किया और इसी को उसने परम सत्ता अथवा परम चेतना के नाम से अभिहित किया।
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रहस्यवादी कवि इस प्रत्यक्ष जगत् के द्वारा जो सदैव परोक्ष की ओर संकेत करता रतिा है, उसका अर्थ यह है कि वह जगत् को उस परोक्ष सत्ता का उपलक्षण अथवा प्रतीक-मात्र मानता है। रहस्यवादी कवि के लिए प्रकृति और मानव जगत् की सार्थकता अपने आप में नहीं, बल्कि उस सत्य में है जिसकी ओर वे संकेत करते हैं। फलतः रहस्यवादी कवि अनिवार्यतः प्रतीकवादी होता है।
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हिन्दी साहित्य में रहस्यवादी कविता का ऐतिहासिक महत्व है। इसमें मनुष्य में आत्मप्रसार तथा आत्म-विश्वास की भावना जगायी; प्राचीनता की कारा में घिरे हुए मन को उन्मुक्त असीम वातावरण दिया; विश्व-मानवता की सार्वभौम भावना उत्पन्न की, स्थूल तथ्यों को भेदकर जीवन-सत्य को देखने की अन्तर्दृष्टि दी और गहन अनुभूति के क्षणों का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण किया। ........ जीवन की क्षुद्रताओं से मनुष्य को ऊपर उठाकर उसे उच्च भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय रहस्यवाद को ही है।
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रहस्यवादी दृष्टिकोण से जीवन और जगत् की समस्याओं को हल करना तो दूर, उन्हें ठीक से समझना भी असंभव है। ......... कोरी भावुकता मनुष्य को इसी तरह पलायन और एकान्तवास की ओर घसीटती है, वह परिस्थितियों को समझने और समझकर संघर्ष करने की प्रेरणा नहीं दे सकती।
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भारत के दूसरे दशक का रहस्यवाद अपनी स्वाधीनता के लिए लड़ने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की जीवन-दृष्टि का अंग है जिसके सामने बहुत दिनों तक अपने लक्ष्य का बोध स्पष्ट नहीं था, किन्तु पराधीनता से मुक्त होने की आकांक्षा प्रबल थी। चूँकि पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होने की इच्छा इस युग में भी मौजूद थी इसलिए कहीं-कहीं आधुनिक रहस्यवाद में भी मध्ययुगीन रहस्य-भावना की झलक मिल जाती है; और यहाँ का शिक्षित वर्ग यदा-कदा योरोप की आकर्षक पतनोन्मुख विचारधारों के मोहपाश में आ जाता था, इसलिए यत्र-तत्र उसमें पश्चिमी प्रतीक-रहस्यवाद के भी कीटाणु मिल सकते हैं; किन्तु कुल मिलाकर हिन्दी का आधुनिक रहस्यवाद अपने सामाजिक आधार एवं साहित्यिक अभिव्यक्ति में उक्त दोनों रहस्यवादों से भिन्न एवं विशिष्ट है।
 

पुस्तक | आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना