छायावाद

पीछे

‘छायावाद’ की विभिन्न प्रवृत्तियों और विशेषताओं की गणना करने वाले आलोचकों ने भी छायावाद को एक स्थिर और जड़ वस्तु मानकर विचार किया है। उनसे इस तथ्य की उपेक्षा हो गयी है कि छायावाद एक प्रवहमान काव्यधारा थी; एक ऐतिहासिक उत्थान के साथ उसका उदय हुआ और उसी के साथ उसका क्रमिक विकास एवं ह्रास हुआ। छायावाद के अठारह-बीस वर्षों के इतिहास में अनेक विशेषताएँ, जो आरम्भ में थीं, वे कुछ दूर जाकर समाप्त हो गयीं और फिर अनेक नयी विशेषताएँ जुड़ गयीं। निःसंदेह छायावाद के उदय और अस्त की चर्चा तो हुई है, लेकिन उसके क्रमिक विकास का विचार बहुत कम हुआ है। इसका मुख्य कारण यही है कि भाववादी आलोचकों ने छायावाद को प्रायः समाज से ऊपर सर्वथा शुद्ध भाव-राशि मानकर विचार किया है।
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छायावाद व्यक्तिवाद की कविता है, जिसका आरम्भ व्यक्ति के महत्व को स्वीकार करने और करवाने से हुआ, किन्तु पर्यवसान संसार और व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ।
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व्यक्तिवाद ने छायावादी कवि में यदि एक ओर वैयक्तिक अभिव्यक्ति की आकांक्षा उत्पन्न की तो दूसरी ओर सम्पूर्ण दृष्टिकोण को व्यक्तिनिष्ठ बना दिया। छायावादी कवि संसार की सभी वस्तुओं को आत्मरंजित करके देखने का अभ्यस्त हो गया। विश्व की व्यथा से स्वयं व्यथित होने की जगह वह अपनी व्यथा से विश्व के व्यथित होने की कल्पना करने लगा।
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छायावादी कवियों ने चुने हुए तथ्यों को उपलक्ष्य बना करके अपने जीवन के अनेक सत्यों की अभिव्यंजना की। इस प्रक्रिया में छायावाद का ध्यान वस्तु के बाह्य आकार की अपेक्षा या तो उसमें निहित भाव की ओर गया या उसकी सूक्ष्म छाया की ओर। प्रकृति-चित्रण में पहले के कवि जहाँ पेड़-पौधों का नाम गिनाकर अथवा प्राकृतिक दृश्यों के स्थूल आकार का वर्णन करके संतुष्ट हो लेते थे, वहाँ छायावादी कवि ने प्रकृति के अंतःस्पंदन का सूक्ष्म अंकन किया।
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छायावादी कवियों ने प्रकृति के छिपे हुए इतने सौन्दर्य-स्तरों की खोज की, वह आधुनिक मानव के भौतिक और मानसिक विकास का सूचक है। इस सौन्दर्य-बोध का विकास प्रकृति और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों का परिणाम है। प्रकृति ने मनुष्य में सौन्दर्य-बोध जगाया और मनुष्य ने उद्बुद्ध होकर प्रकृति में नवीन सौन्दर्य की खोज की और इस तरह दोनों परस्पर वर्धमान हुए।
      छायावादी कवि के व्यक्तिनिष्ठ दृष्टिकोण ने प्रकृति-सौन्दर्य में ही सूक्ष्मता नहीं दिखाई, बल्कि मानव-सौन्दर्य में भी स्थूल शारीरिकता की जगह स्वस्थ, मांसल तथा भावात्मक सुषमा की प्रतिष्ठा की। मध्ययुग के कवि नारी की जिन भौहों को ‘कमान‘ समझते थे, छायावादी कवि के लिए उन्हीं ‘करुण भौहों में था आकाश’।
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व्यक्तिवाद के मूल से छायावाद में जो तीसरी बात पैदा हुई, वह है भावुकता। ..... छायावादी कवि में उच्छल भावुकता का अबाध उद्गार है, यहाँ तक कि भावुकता छायावाद का पर्याय हो गयी। 
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इस कैशोर भावुकता ने छायावादी कवि को ऐसी अन्तर्दृष्टि दी जिसे कल्पना-शक्ति कहते हैं। ..... कल्पना उसकी राग-शक्ति भी थी और बोध-शक्ति भी।
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जिस प्रकार छायावाद-युग की अधिकांश प्रतिमाएँ छायाजीवी हैं, उसी तरह अधिकांश पात्र स्वप्नजीवी हैं।
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अन्तर्दृष्टि-दायिनी कल्पना और जीवन-शक्ति-दायिनी कल्पना -इन दोनों की सुन्दर अभिव्यंजना छायावादी काव्य में हुई है।
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कल्पना छायावादी कविता की मौलिक विशेषता है। इसी ने कवि को रहस्यदर्शी बनाया; असीम और अनन्त की सार्वभौम अनुभूति दी; अतिपरिचित वस्तुओं में भी अपरिचित सौन्दर्योद्घाटन की अन्तर्दृष्टि दी तथा विरूप वस्तुओं को भी रूपमय बनाने की क्षमता प्रदान की, इसी ने कवि में नवीन ऐन्द्रिय-बोध जगाये और अभूतपूर्व संवेदनशीलता उभारी।
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छायावाद के अनुभूति-प्रवण कवियों ने वर्ण, ध्वनि, गंध, स्पर्श, रस आदि के अत्यंत सूक्ष्म ऐन्द्रिय-बोध का परिचय दिया।
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इस कल्पना ने एक ओर छायावाद में जहाँ इतनी विशेषताएँ पैदा कीं, वहाँ दूसरी ओर जब धीरे-धीरे इसका अतिरेक होने लगा तो कल्पना-प्रवण अन्तर्दृष्टि अधिक गहन, गूढ़ और रहस्यमय हो गयी; फलतः गहराई की जगह दुर्बोध उलझनों तथा अस्पष्ट भावों की सृष्टि होने लगी।
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छायावादी कविता के शब्द-समूह का दूसरा पहलू वह है जहाँ अतिशय शब्द-मोह दिखायी पड़ता है। मधुर ध्वनिवाले शब्दों के मोह में पड़कर छायावादी छायावादी कवियों ने प्रायः आवश्यकता से अधिक शब्दों का व्यय किया है। जिस प्रकार छायावादी कविता में अनावश्यक कल्पना-बाहुल्य मिलता है, उसी प्रकार अनावश्यक शब्दों की फिजूलखर्ची भी दिखायी पड़ती है। फिर भी भावों का क्षेत्र सीमित होने के कारण छायावाद का शब्द-कोश काफी सीमित है।
     भावोच्छ्वास की प्रधानता के कारण छायावादी वाक्य-प्रवाह में शब्दों का क्रम प्रायः गड़बड़ा गया।
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चित्रात्मकता छायावादी कविता की बहुत बड़ी विशेषता है।
 

पुस्तक | आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ लेखक | डॉ0 नामवर सिंह भाषा | खड़ी बोली विधा | आलोचना