कोई आदमी जब मरता है

पीछे

कोई आदमी जब मरता है, तो शायद साल-भर तक उसकी मौजूदगी हर किसी के दिमाग में बनी रहती है। बरसी होने के बाद हर दिन वह स्मृति धुँधली होती जाती है। धीरे-धीरे जो बचता है वह होती है एक ‘एडिट‘ की हुई स्मृति। जैसे फिल्मों में काट-छाँटकर एक दृश्य बना लेते हैं वैसे ही हा आदमी के पास हर मरे हुए आदमी की टुकड़े-टुकड़े जोड़कर बनाई छवि होती है। जिसका जो मन होता है उसमें जोड़ लेता है और जिसे जो मन में नहीं भाता, उसे काट-छाँटकर मिटा डालता है।

पुस्तक | जानकीदास तेजपाल मैनशन लेखक | अलका सरावगी भाषा | खड़ी बोली विधा | उपन्यास